
गोनू झा की कुश्ती (कहानी):Gonu Jha Ki Kushti (Maithili Story in Hindi)
एक बार मिथिला के राजदरबार में दिल्ली का एक पहलवान आया।
वह सात फुट ऊँचा भारी डील-डौल वाला,मजबूत शरीर वाला पहलवान था जिसकी मोटी-मोटी बाहें देखते ही बनती थी।
मिथिलानरेश कला के बहुत प्रेमी थे। पहलवान को दरबार में बड़े आदर के साथ लाया गया।
महाराज ने उसका स्वागत किया अपने महल मे ।
मिथिला नरेश से पहलवान बोला – मैं दिल्ली से आया हूँ और मेरा नाम ज्वालासिंह है। दिल्ली में मेरे मुकाबले का कोई भी पहलवान नहीं है। मैं आसपास के राज्यों के सभी पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ चुका हूँ और अब मिथिला आया हूँ। मैंने सुना है कि आपके राज्य में एक से बढ़कर एक पहलवान है।
तनिक मैं भी तो देखू कि मुझे कोई टक्कर दे सकता है या नहीं।
महाराज मिथिला नरेश पहलवान ज्वालासिंह से बोले हमें यह जानकर तो ख़ुशी हुआ कि तुम्हें अपनी शक्ति का घमंड है।
तुम यह क्यों भूल जाते हो कि संसार में हर कला मे एक से बढ़कर एक पाया जाता है।
महाराज इसकाल में मुझे आज तक कोई ऐसा नहीं मिला जो मुझे पराजित कर सके। ज्वालासिंह बोला। अवश्य ऐसी ही बात होगी पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि तुम कभी भी पराजित नहीं हो सकते । मुझे तो यही लगता है। फिर ठीक है कल प्रातः अखाड़े में तुम्हारी भुजाओं की शक्ति और पैतरों का परीक्षा होगी । मिथिला नरेश ने कहा। और अगले दिन अखाड़े में ज्वालासिंह गरज रहा था।
मिथिला के कई पहलवान उससे द्वंद्वयुद्ध को तैयार थे। राजा के आते ही पहली कुश्ती शुरू हो गई।
ज्वालासिंह वास्तव में गजब का पहलवान था। उसने क्षण भर में प्रतिद्वंद्वी को चित कर दिया।
और उसके बाद तो मिथिला के चार और पहलवान उसके सामने घुटने टेक चुके थे।
अब मिथिला का मान सम्मान खतरे में था। राजा चिंतित थे। उस दिन ज्वालासिंह को राजा की आज्ञा से शाही मेहमान बनाकर भांति-भांति का भोजन कराया गया।
दूसरे दिन तो और भी गजब हुआ। मिथिला का कोई भी पहलवान ज्वालासिंह से भिड़ने को तैयार ही नहीं था। अब महाराज समझ गए कि मिथिला का सम्मान कोई नहीं बचा सकेगा।
उनके चेहरे पर उदासी छा गई और वह सब दरबारियों की तरफ देखने लगे।
क्या मिथिला में कोई ऐसा पहलवान नहीं जो ज्वालासिंह के घमंड को चूर-चूर कर सके। क्या हमने अपने पहलवान को व्यर्थ ही घी-दूध आदि खिलाया है। इस प्रकार तो मिथिला का सम्मान नहीं बचेगा।
दरबार में गोनू झा भी थे। उन्हें महाराज की उदासी देखकर अच्छा नहीं लगा। अब उन्हें कुछ सोचना होगा।
महाराज,मैं ज्वालासिंह से युद्ध करूंगा। गोनू झा गरजकर बोले – यद्यपि यह मेरा क्षेत्र नहीं है क्योंकि मैं बचपन में कुश्ती लड़ता था तो मुझ पर कोई जिन्न सवार हो जाता था।
प्रतिद्वंद्वी के हाथ-पैर टूट जाते थे। तब घरवालों ने मुझे कुश्ती लड़ने से रोक दिया। फिर बहुत दिनों बाद एक ज्योतिषी ने मुझे बताया कि मेरे हाथों में मानहत्या की रेखा है जो कभी लड़ते-भिड़ते मेरे हाथों होगी।
इसलिए मैं युद्ध नहीं करता पर आज बात मिथिला के सम्मान की है तो मैं अवश्य लडूंगा।
ज्वालासिंह भौंचक्का-सा उस कमजोर से आदमी को देख रहा था जो इतनी गरज के साथ चुनौती स्वीकार कर रहा था।
महाराज समझ गए कि गोनू झा बुद्धि का कोई प्रयोग करके उस पहलवान का गर्व चूर करना चाहता है।
हाँ भाई ज्वालासिंह। गोनू झा बोले – कुश्ती के तो विद्वान हो और सैकड़ों कुश्तियाँ जीती भी होगी। कुश्ती की सरगम तो जानते होंगे।
स……. सरगम! ज्वाला सिंह अचकचाया।
अरे, सरगम नहीं जानते कुश्ती की ? कैसे पहलवान हो ?
जानता हूँ न ! सब जानता हूँ। ज्वाला सिंह को कहना पड़ा। भरे दरबार में वह कैसे कह देता कि वह पहलवान होकर भी कुश्ती की सरगम नहीं जनता। होती होगी कोई ऐसी चीज। उसे क्या ? उठाकर दे मारेगा।
तो फिर कल हमारी कुश्ती पंचम स्वर,द्रुत लय और पटक ताल से होगी।
साथ ही कालभैरब राग में होगी। गोनू झा बोले।
ज्वाला सिंह ने सहमति में सिर तो हिला दिया पर उसका दिल लरज उठा। उसने आज तक उस तरिके से कुश्ती न लड़ी थी,जिस तरीके से उसका प्रतिद्वंद्वी बता रहा था वह तो एक भी न जानता था।
ज्वाला सिंह इसी उधेड़बुन में था। रात्रि का भोजन करने के बाद आराम कर रहा था कि दरबारी बोला-कल तो वास्तव में मजा आ जाएगा।
असली कुश्ती तो कल ही देखने को मिलेगी। गोनू झा पटक ताल में जरा कच्चे हैं पर द्रुत लय में उनका जवाब नहीं ,आप पलक भी न झपकेंगे कि आपकी रीढ़ की हड्डी में दरार पड़ जाएगी। क्या गजब का पैंतरा है उनका।
ज्वाला सिंह ने होंठो पर जुबान फिराई।
आपने कहाँ सीखी यह पहलवान विद्या ? दरबारी ने पूछा।
दिल्ली से ही हूँ। दिल्ली में दांव-पेंच तो सब सिखाए जाते हैं। पर जब तक लय,ताल का पता न चले तो क्या सीखा। गोनू झा तो राग काल भैरब के उस्ताद हैं। और काल भैरब तो आप खुद जानते हैं बड़े ही क्रोधी पहलवान है।
ज्वाला सिंह को तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था ।
अब….. मुझे आराम करने दो। वह दरबारी से बोला – प्रातः जल्दी जागना है।
दरबारी हँसता हुआ वहां से चला गया।
सुबह अखाड़े में गोनू झा शेर की भांति गरज रहे थे। चारों तरफ भीड़ का कोलाहल था।
मिथिला नरेश अपनी गद्दी पर बैठे थे। पर दिल्ली के पहलवान ज्वाला सिंह का कहीं अता-पता नहीं था। सारे मिथिला में खोजने पर भी वह कहीं नहीं मिला।
महाराज समझ गए, गोनू झा को विजेता घोषित कर दिया गया और ढेरों पुरस्कारों से नवाजा गया।
महाराज के पूछने पर गोनू झा ने हँसते हुए बताया कि उन्होंने ज्वाला सिंह को सुर,लय,ताल की उलझन में तो डाल ही दिया था।
रात को एक विश्वस्त दरबारी द्वारा उसे इतना भयभीत कर दिया गया कि उसने भाग जाने में ही भलाई समझी।
महाराज प्रसन्न हो गए। मिथिला का सम्मान जो बच गया था।